प्रस्तुत पुस्तक में स्वतंत्रता, समानता व न्याय आदि विभिन्न अवधारणाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। राजनीतिक विचारधाराएँ सरकारों के वैधीकरण में सहायक बनती हैं। राष्ट्रवाद, साम्यवाद, समाजवाद अथवा बहुजनवाद आदि विचारधाराओं का प्रचार-प्रसार करके विभिन्न राजनीतिक दल आम जनता का भरोसा हासिल करने में कामयाब होते हैं। पुस्तक में कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए गये, यथा - क्या कम्युनिस्ट विचारधारा को ‘समाजवाद’ के अनुरूप माना जा सकता है ? कम्युनिस्ट देशों में जो व्यवस्था रही है उसमें दमन या कठोरता का जितना अंश था उतना समाजवाद और समानता का नहीं। राजनीतिक समानता के बावजूद क्या हम यह कह सकते हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं को वह स्थान मिल पाया जा आज पुरूषों को प्राप्त है? क्या किसी भी समाज के ‘पर्सनल लॉ’ को संविधान और मूलभूत अधिकारों से उच्चतर माना जा सकता है? सेंसर व्यवस्था की क्या सीमाएँ हैं? कौन-से ऐसे कारण हैं कि उदारवाद का गढ़ कहलाने वाले अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में भी पिछले दिनों असहनशीलता का चलन बढ़ा है। इन प्रश्नों पर बहस होनी चाहिए। मैंने विषयवस्तु को ऐसे ढाँचें में रखने का प्रयास किया जिससे छात्र-छात्राओं की चिंतन शक्ति का विकास होने की अपेक्षा की जाती है।
खण्ड-1 राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति और प्रासंगिकता
- राजनीतिक सिद्धांत क्या है?
- राजनीतिक सिद्धांत की प्रासंगिकताः राजनीतिक सिद्धांतों की क्या आवश्यकता है?
खण्ड-2 विभिन्न अवधारणाओं की स्पष्ट समझ
- स्वतंत्रता की अवधारणा
- समानता की अवधारणा
- न्याय की अवधारणा
- अधिकार की अवधारणा
खण्ड-3 राजनीतिक सिद्धांत में बहस के कुछ मुद्दे
- क्या संरक्षात्मक भेदभाव निष्पक्षता के सिद्धांतों के प्रतिकूल है?
- सार्वजनिक क्षेत्र बनाम निजी क्षेत्र संबंधी विवाद: नारीवाद परिप्रेक्ष्य
- सेंसर व्यवस्था और इसकी सीमाएँ
ISBN13:
978-93-5161-187-6
Weight:
240.00
Edition:
3rd Revised Edition 2020
Language:
Hindi
Title Code:
1194